Bahujan Nayak Manyavar kanshiram Jeevani
“दलितों को मांगने वालों की जगह, देने वालों के समुदाय में बदलना होगा ” – मान्यवर कांशीराम
15 मार्च का दिन दलितों के उद्धारक बहुजनों के मसीहा कांशीराम kanshiram का जन्मदिन है। मान्यवर कांशीराम जयंती, जिसे पूरे भारत में प्रेरणा दिवस के रूप में मनाया जाता है। लोग उन्हें प्यार से ‘मान्यवर‘ या ‘साहेब‘ से संबोधित किया करते थे।
मा. कांशीराम : जन्म
मान्यवर कांशीराम साहब का जन्म 15 मार्च 1934 को रोपड़ (रूपनगर) जिले के खवासपुर नामक कस्बे के पिरथपुर बुंगा नामक गांव में हुआ था।
“बहुत लंबे समय से हम सिस्टम के दरवाजे खटखटा रहे हैं, न्याय मांग रहे हैं और न्याय नहीं पा रहे हैं, इन हथकड़ियों को तोड़ने का समय आ गया है। – मान्यवर कांशीराम “
मा. साहेब कांशीराम : पारिवारिक परिचय
कांशीराम के पिताजी का नाम हरी सिंह और माता का नाम बिशन कौर था। कांशीराम के दादाजी का नाम धेलेराम था, जो कि लाहौर से आर्मी के सेवानिवृत्त फौजी थे। धेलेराम के हरी, बिशन तथा रचन सिंह नाम के तीन बेटे और हैरो नाम की एक बेटी थी।
कांशीराम के दादाजी ने चमड़े का एक कारखाना शुरू किया था, जिसे उनके बेटे हरी सिंह ने संभाला। बाकी दोनों भाई, दादाजी की तरह फौज में भर्ती हो गए।
“जाति तोड़ो, समाज जोड़ो ” – मान्यवर कांशीराम
हरि सिंह का विवाह बिशन कौर से हुआ था। उनकी सात संतान हुईं, जिनमें कांशीराम सबसे बड़े थे। उनके तीन भाई और तीन बहनें थी।
कांशीराम जाति से चमार थे और उनका परिवार रविदासिया पंथ से आता था। निचली जाति से होने के बावजूद उनके परिवार की आर्थिक स्थिति तुलनात्मक रूप से काफी बेहतर थी।
खेती के लिए अच्छी खासी जमीन होने के अलावा उनका परिवार लीज़ पर आम का बगीचा भी लेता था और आम के फलों को बेचकर आमदनी कमाता था।
मा. कांशीराम : शिक्षा
कांशीराम की स्कूली शिक्षा की शुरुआत पांच वर्ष की उम्र से हुई, उनका दाखिला अपने गांव से दो किलोमीटर दूर मलकापुर गांव के सरकारी प्राइमरी स्कूल में कर दिया गया, जहाँ वह चौथी कक्षा तक पढ़े।
दलित बच्चों को उस समय स्कूल में बहुत से भेदभाव का सामना करना पड़ता था। उन्हें बाकी बच्चों से अलग बैठना पड़ता था तथा उनका पीने के पानी का बर्तन भी अलग हुआ करता था।
हालांकि सिख धर्म समतावादी था, सभी सिखों को सारे धार्मिक अनुष्ठान करने की अनुमति थी। इस मामले में आर्थिक स्थिति और जाति मायने नहीं रखती थी।
परंतु सामाजिक मेलजोल के मामले में स्थिति कुछ भिन्न थी, प्रत्येक समुदाय तथा पंत के अपने अपने श्मशान घाट थे, जो आज भी मौजूद हैं। ये श्मशान घाट पंचायत द्वारा दी गई भूमि पर बनाए गए थे ।
रविदासिया समुदाय को सिख समुदाय का हिस्सा नहीं माना जाता था। जिसकी वजह से उनके साथ अछूतों की तरह व्यवहार किया जाता था। हालांकि खालसा पंथ ग्रहण करने के बाद उनकी स्थिति सम्मानजनक हो गई थी।
कांशीराम को रोपड़ के इस्लामिया स्कूल मैं पांचवीं कक्षा में भर्ती कराया गया। जहाँ उन्होंने आठवीं तक पढ़ाई की। नौवीं व दसवीं की पढ़ाई उन्होंने रोपण के डीएवी पब्लिक स्कूल से की। तत्पश्चात सन् 1956 में उन्होंने बीएससी अर्थात् स्नातक की परीक्षा गवर्नमेंट कॉलेज रोपड़ से पास की।
1956 में स्नातक की परीक्षा पास करने के बाद कांशीराम देहरादून स्टाफ कॉलेज में उच्च शिक्षा के अध्ययन एवं प्रशिक्षण के लिए चले गए।
लोक सेवा आयोग की तैयारी के दौरान भी वह देहरादून में ही रहे और साथ ही साथ जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया में कार्य भी करते रहे। डॉक्टर अंबेडकर की मृत्यु की सूचना (6 दिसंबर 1956) के वक्त वह देहरादून में ही थे।
1957 में कांशीराम ने सर्वे ऑफ इंडिया की परीक्षा पास की, परंतु नौकरी की कुछ शर्तों की वजह से वह नौकरी नहीं की।
सन् 1958 में उन्हें हाई एनर्जी मटेरियल रिसर्च लेबोरेटरी ( Explosive Research and Development Laboratory – ERDL) पूना में रिसर्च असिस्टेंट की नौकरी मिल गई।
“जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” – मान्यवर कांशीराम
अपने बचपन और छात्र जीवन को याद करते हुए कांशीराम ने एक बार कहा था ,”आस पास बहुत सारे ऐसे लोग थे जो जातिवाद से प्रभावित थे और दीन हीन जीवन जीते थे, लेकिन वे खुद कभी खुलेआम जाति भेदभाव का कभी शिकार नहीं हुए। गरीब और अशिक्षित होने की वजह से लोगों को खुलेआम अन्याय सहते देख काशीराम गुस्से से बेचैन हो उठते थे, वे कहते थे हमारा परिवार शारीरिक तौर पर बहुत मजबूत था, इसलिए कोई हमें छूने की हिम्मत भी नहीं करता था”।
बचपन की एक और बात को याद करते हुए उन्होंने कहा था कि , ” एक बार जब मैं स्कूल में छात्र था, मेरी माँ ने मुझे पिता को खाना दे आने को कहा। जो कि रोपड़ नहर के गेस्ट हाउस में बेगार कर रहे थे।
मैंने माँ से पूछा -बेगार का अर्थ क्या होता है? तो उन्होंने कहा, बड़े अधिकारियों की सेवा करना जो हम गरीब लोगों को करनी पड़ती है।यह बहुत उत्तेजित करने वाली बात थी, मैं गेस्ट हाउस पहुंचा, मैंने देखा कि मेरे पिताजी पसीने से भीगे हुए हैं।
मैं उनकी हालत देख नहीं सकता था। मैंने उन्हें आराम करने को कहा लेकिन मेरे पिताजी ने कहा कि मैं इस समय ऐसा नहीं कर सकता। अंदर बड़े अधिकारी सो रहे हैं।
मेरे पिताजी लगातार हाथ से चलने वाले पंखे की डोरी खींच रहे थे ताकि अंदर अधिकारी को ठंडी हवा मिलती रहे। बिजली से चलने वाले पंखे आने से पहले हाथ से खींचकर चलाए जाने वाले पंखे होते थे।
हाथ से डोरी खींचने वाला बाहर लगातार डोरी खींचता था ताकि पंखा चलता रहे। मेरे पिताजी यह काम बहुत ही थोड़े पैसों के बदले कर रहे थे।उन्होंने कहा, यदि वह डोरी खींचना बंद कर देंगे तो अधिकारी जाग जाएगा और हमें दंडित कर दंडित करेगा।
तब मैंने कहा कि दूसरे हाथ से छोटा पंखा लेकर अपने ऊपर हवा करिए, लेकिन मेरे पिताजी ने कहा कि वह ऐसा नहीं करेंगे”।
काशीराम ने कहा यह घटना मेरे जीवन को गहराई से प्रभावित कर गई। बाद में धर्मांतरण के बाद वह नीचे जाति के नहीं रह गए थे परन्तु कांशीराम को अपने पूर्वजों के शोषण के बारे में जानकर ताज्जुब होता था।
कांशीराम का जीवन त्याग और निष्ठा का उत्कृष्ट उदारण है, पूना में काम करते समय उन्होंने दलितों की दुर्दशा को देखा और समझा जिससे उन्हें अपने दलित होने की पहचान को महसूस करने की चेतना मिली।
“मैंने जिन लोगों को समाज में मनुवाद के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार किया, वो लोग आज निजी स्वार्थ के कारण मेरे ही खिलाफ लड़ रहे हैं, इससे सामाजिक आंदोलन का बहुत ही नुकसान हुआ।” – मान्यवर कांशीराम
एक और घटना जिसने कांशीराम का जीवन ही बदल दिया : –
उनके ऑफिस में बुद्ध और अंबेडकर जयंती पर छुट्टी होती थी। बाद में ऊपरी जाति के कुछ सहकर्मियों ने बुद्ध और अंबेडकर जयंती की छुट्टी बंद कराकर बाल गंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले की जयंतियों पर छुट्टी करवा दी।
निम्न जाति के कर्मचारी इस फैसले पर खुश नहीं थे। लेकिन आगे आकर इसका विरोध करने का साहस किसी में नहीं था। केवल एक चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी जिनका नाम दीनाभाना था, ने लिखित शिकायत दर्ज कराई है, परिणामस्वरूप उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया।
कांशीराम ने जब उनसे पूछा कि अब आगे वह क्या करेंगे तब उन्होंने कहा कि वह अदालत जाएंगे।कांशीराम के कारण पूछने पर उन्होंने कहा कि – अधिकार छीने जाते हैं, मांगें नहीं जाते, मांगने से केवल भीख मिलती है। वे लोग जो अपने अधिकारों के लिए लड़ते हैं, उन अधिकारों को अपना हक मानते हैं।
मान्यवर दीनाभाना की इन बातों ने कांशीराम की आँखें खोल दीं। उन्हें यह समझ में आने लगा कि ऊंची जातियां अपना प्रभुत्व जमाये रखने के लिए कैसे कार्य करती है?
कांशीराम ने दीनाभाना की मदद करने का फैसला किया। उन्होंने सभी चतुर्थश्रेणी के कर्मचारियों को एकजुट किया, रैलियां की, और इस लड़ाई को एक आंदोलन बनाया।
उन्होंने आर्थिक तौर पर भी दीनाभाना की मदद की। कांशीराम तत्कालीन रक्षा मंत्री से मिले, रक्षा मंत्री के आदेश से उच्चस्तरीय जांच बैठाई गई। बुद्ध व अंबेडकर जयंती की छुट्टियों के साथ साथ दीनाभाना की नौकरी को भी बहाल किया गया।
पर इस घटना के साथ ही कांशीराम के मन में इस देश में दलितों की पहचान, उनके अधिकारों तथा न्यायालय, प्रशासनिक सेवा और मंत्रिमंडल में उनके अस्तित्व को लेकर प्रश्न उमड़ने लगे।
अपने प्रश्नों के अस्तित्व को खोजने के लिए उन्होंने अपने मित्र डी. के. खापर्डे द्वारा उपहार में दी गई डॉ. अंबेडकर की किताब “एनिहिलेशन ऑफ कास्ट” ( जाति का विनाश ) को पढ़ा। उन्होंने महात्मा ज्योतिबा फुले और साहूजी महाराज के कार्यों और रचनाओं ( गुलामगिरी )को भी पढ़ा।
कांशीराम रिपब्लिकन पार्टी के सदस्य के तौर पर काम करते हुए कई पढ़े लिखे दलितों से भी मिले। उन्हें एहसास हुआ कि इन दलितों को अपनी जाति के बहुसंख्यक लोगों की दुर्दशा से अवगत कराने और जागृत करने की जरूरत है।
उन्होंने टुकड़ों में बंटी दलित जातियों को एकत्रित करने का मिशन चलाने का निर्णय लिया। वह समझ गए थे कि यह इतना आसान नहीं है।
कांशीराम का जीवन त्याग और निष्ठा का उत्कृष्ट उदारण है, उन्होंने “सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक आजादी” को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया और खुद को पूरी तरह से इसके लिए समर्पित कर दिया।
सबसे पहले उन्होंने नौकरी छोड़ने का महत्वपूर्ण फैसला लिया। तत्पश्चात उन्होंने 24 पन्नों का एक पत्र अपने घर वालों को लिख कर भेजा। उसमें उन्होंने बहुत सारे संकल्प लिए थे।
“हम तब तक नहीं रुकेंगे जब तक हम व्यवस्था के पीड़ितों को एकजुट नहीं करेंगे और हमारे देश में असमानता की भावना को खत्म नहीं करेंगे।” – मान्यवर कांशीराम
मा. कांशीराम : प्रतिज्ञायें
वे संकल्प थे :-
मैं कभी घर लौट कर नहीं आऊँगा।
मैं कभी घर नहीं बनाऊँगा। गरीबों, दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का घर ही उनका घर होगा।
मैं सारे पारिवारिक संबंधों से मुक्त रहूँगा, मैं अपने संबंधियों से कोई संबंध नहीं रखूँगा।
मैं कभी शादी नहीं करूंगा, क्योंकि शादी उनके एकनिष्ठ मिशन की दिशा के पूर्ण समर्पण में बाधक सिद्ध होगी।
मैं कभी किसी शादी, जन्मदिन, अंतिम संस्कार जैसे किसी सामाजिक कार्यक्रमों में शामिल नहीं होऊँगा।
मैं कभी परिवार की जिम्मेदारी नहीं उठाऊँगा, क्योंकि पूरे समाज की जिम्मेदारी अब मेरे ऊपर है।
मैं कभी कोई दूसरी नौकरी नहीं करूंगा।
अंत में उन्होंने कहा कि मैं बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर के सपनों को पूरा किये बगैर आराम नहीं लूँगा।
उस पत्र को पढ़कर सदमे में आईं उनकी माँ बिशन कौर उनको मनाने के लिए उनके पास पूना गई, परंतु उनकी जिद के आगे हार मान कर वापस घर लौट आईं और उनके द्वारा कांशीराम के लिए स्वीकार किये गये रिश्ते के प्रस्ताव को भी खारिज करना पड़ा।
कांशीराम ने 1964 में नौकरी छोड़ दी। वे आरबीआई ( रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया ) में पहले ही शामिल हो चुके थे।
कांशीराम ने बहुत सी दलित जातियों को उनकी आर्थिक, सामाजिक, मानसिक और सांस्कृतिक अधीनता से अवगत कराकर उन्हें जागृत किया।
वे कहते थे:- ” दूसरी पार्टियां दलितों में से केवल चमचा पैदा करती हैं लेकिन हम नेता पैदा करेंगे और एक दिन यह नेतृत्व ऐसे दलितों को पैदा करेगा जो वास्तव में आजाद होंगे “।
मा. कांशीराम : सामाजिक और राजनीतिक योगदान
“ऊंची जातियां हमसे पूछती हैं कि हम उन्हें पार्टी में शामिल क्यों नहीं करते, लेकिन मैं उनसे कहता हूं कि आप अन्य सभी दलों का नेतृत्व कर रहे हैं। यदि आप हमारी पार्टी में शामिल होंगे तो आप बदलाव को रोकेंगे। मुझे पार्टी में ऊंची जातियों को लेकर डर लगता है। वे यथास्थिति बनाए रखने की कोशिश करते हैं और हमेशा नेतृत्व संभालने की कोशिश करते हैं। यह सिस्टम को बदलने की प्रक्रिया को रोक देगा।” – मान्यवर कांशीराम
- 1971 में पूना में कांशीराम ने एससी/ एसटी,ओबीसी, माइनोरिटी, कम्युनिटी इंप्लाइज एसोसिएशन (SMCEA) की स्थापना की, जो बाद में बामसेफ के नाम से जाना गया। बामसेफ सरकारी कर्मचारियों का एक गैर राजनीतिक संघटन था, जिसका काम समाज की बौद्धिक , समय और धन से लोगों की मदद करना था।
6 दिसंबर 1978 को औपचारिक रूप से वे इस संगठन को बामसेफ के नाम से स्थापित करने में सफल हो गए और दिल्ली के करोलबाग में इसका ऑफिस बनाया। कांशीराम का सरकारी कर्मचारियों को जोड़ने का अथक प्रयास इतना सफल हुआ कि 2,00,000 से ज्यादा लोगों ने इसकी सदस्यता ली।
इसके प्रथम राष्ट्रीय सम्मेलन जो 2 – 4 दिसंबर 1979 को नागपुर में आयोजित हुआ , जिसमें 10,000 से अधिक लोग शामिल हुए थे।
- 6 दिसम्बर 1981 में उन्होंने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति ( DS-4 ) बनाई और 1983 में डीएस4 ने एक साइकिल रैली का आयोजन कर अपनी ताकत दिखाई,इस रैली में तीन लाख लोगों ने हिस्सा लिया था।
DS-4 एक राजनीतिक संगठन न होते हुए भी, एक राजनीतिक संगठन जैसी गतिविधियों की तरह ही काम कर रहा था, जिसके जरिए से बामसेफ अप्रत्यक्ष तौर पर संघर्ष में शामिल हो चुकी थी।
बामसेफ की बदौलत ही कांशीराम के नेतृत्व में बहुजन समाज में राजनैतिक भूख पैदा हो गई और भ्रमहंवाद के खिलाफ एक सशक्त जन आन्दोलन खड़ा हो पाया।
बसपा के गठन से पहले 1982 में DS-4 के माध्यम से हरियाणा विधानसभा का चुनाव भी लड़ा और 1.11% वोटों को हासिल भी किया पर पार्टी के गठन के बाद वक्त के साथ DS-4 गुमनामी में चला गया।
3.उन्होंने मौजूदा पार्टियों में दलितों की जगह की पड़ताल की और बाद में अपनी अलग पार्टी खड़ा करने की जरूरत महसूस की, वो एक चिंतक भी थे और ज़मीनी कार्यकर्ता भी थे।
14 अप्रैल 1984 को मान्यवर कांशीराम ने बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर के जन्मदिन के पर बहुजन समाज पार्टी ( बसपा ) बनाई, और धीरे धीरे बहुजन समाज पार्टी को राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बनाया।
तब तक कांशीराम पूरी तरह से एक पूर्णकालिक राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता बन गए थे।
उन्होंने तब कहा था कि “अंबेडकर किताबें इकट्ठा करते थे लेकिन मैं लोगों को इकट्ठा करता हूं।“
उन्होंने बहुजनवाद की सिद्धांत विकसित किया जिसमें 15 प्रतिशत सवर्ण और बाकी 85 प्रतिशत एससी/ एसटी,ओबीसी और माइनोरिटी कम्यूनिटी के लोग आते थे।
उन्होंने 15% Vs 85% की लड़ाई का फार्मूला तैयार किया।
साथ ही उन्होंने बहुजन समाज में जन्मे सभी महापुरुषों के जीवन संघर्ष और उनकी विचारधारा को बढ़ाने का खाका तैयार किया।
उन्होंने उत्तर प्रदेश से बहुजन राजनीति की शुरुआत की। सन् 1970 में मानवर कांशीराम की मुलाकात एक ऐसे व्यक्तित्व से हुई।
जिन्हें कांशीराम ने आगे चलकर अपना उत्तराधिकारी बनाया। साथ ही बसपा के अध्यक्ष के तौर पर चार बार मुख्यमंत्री भी बनी।
सभी उस प्रतिभाशाली व्यक्तित्व को सुश्री मायावती के नाम से जानते हैं। दलित समाज उन्हे प्यार से “बहन जी ” और “आयरन लेडी” के नाम से संबोधित करती है।
बसपा का उद्देश्य स्पष्ट था :-” सत्ता की चाबी हासिल करना” और फिर सम्राट अशोक के भारत भ्रमण की स्थापना करना।
सत्ता हासिल करने के बाद मान्यवर कांशीराम ने वैसा किया भी, उत्तर प्रदेश को बौद्ध राज्य घोषित करने के साथ साथ, बहुजन महापुरुषों की मूर्तियाँ और स्मारकों बनवाए।
मान्यवर कांशीराम ने समाज के लिए स्कूल- कॉलेज, यूनिवर्सिटी और हॉस्पिटल भी बनवाए।
चमचा युग
“जब तक, जाति है, मैं अपने समुदाय के लाभ के लिए इसका उपयोग करूँगा। यदि आपको कोई समस्या है, तो जाति व्यवस्था को समाप्त करें। ” – मान्यवर कांशीराम
कांशीराम ने 1982 में चमचा युग के नाम से यह किताब भी लिखी। यह किताब बहुजन समाज के उन सभी नेताओं के गाल पर एक तमाचा थी। जो अपने समाज का प्रतिनिधित्व तो करते थे, परंतु अपने निजी स्वार्थ के लिए अपने समाज के हितों को को बेच देते थे।
कांशीराम ने उन्हें चमचा शब्द से परिभाषित किया था।
मा. कांशीराम : परिवार से भेंट
“जब तक हम राजनीति में सफल नहीं होंगे और हमारे हाथों में शक्ति नहीं होगी, तब तक सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन संभव नहीं है। राजनीतिक शक्ति सफलता की कुंजी है।” – मान्यवर कांशीराम
मान्यवर कांशीराम का जीवन संघर्षों और व्यथाओं से भरा रहा है। कांशीराम पूरा जीवन देश में घूम घूम कर दलितों और पिछड़ों को जागरूक करते रहे और समाज को एकजुट करते रहे ।
उनकी नौकरी छोड़ने के सूचना उनके परिवार वालों के पास नहीं थी, साथ ही वह एक जगह ज्यादा वक्त तक रुकते भी नहीं थे।
चूंकि उन्होंने आधिकारिक तौर पर अपनी नौकरी से त्यागपत्र नहीं दिया था, इसलिए परिवार वालों द्वारा कांशीराम के नाम पर भेजे गए रजिस्टर्ड डाक उनके पुणे वाले ऑफिस में जाते थे और इस सूचना के साथ वापस आ जाते थे कि वह 5 वर्ष की छुट्टी पर चले गए हैं।
चारों तरफ उनके विदेश जाने या गायब होने की अफवाह उठने लगी थी, मीडिया में चर्चा शुरू होने से पहले तक उनके परिवार वालों को उनके पते ठिकाने के बारे में कोई जानकारी नहीं थी।
एक बार जब उनके छोटे भाई दलबारा सिंह उनसे मिलने आए तो वे उन्हें पहचान ही नहीं पाए , परिचय प्राप्त होने के बाद कांशीराम अपने छोटे भाई को देखकर अपनी आंखों के आंसू रोक नहीं पाए।
उनकी बहन और उनके परिवार के अन्य सदस्यों के साथ ही इस तरह के संयोग हुए ।
18 साल बाद माता बिशन कौर ने कांशीराम को घर वापस लाने की एक और असफल सी कोशिश की परंतु कांशीराम की जिद के आगे वह फिर नाकाम रहीं।
मा. कांशीराम : स्वास्थ्य पर असर
मान्यवर कांशीराम की अत्यधिक काम करने के कारण उनके स्वास्थ्य पर गंभीर असर पड़ा, उन्हें उच्च रक्तचाप और मधुमेह रोग हो गए, जो उन्हें पूरी जिंदगी प्रभावित करते रहे ।
जल्दी ही उनको एहसास हो गया कि उनका स्वास्थ्य तेजी से गिर रहा है।
कांशीराम ने 2001 में लखनऊ में एक विशाल रैली में मायावती को उत्तराधिकारी घोषित करके उन्हे बसपा की विरासत सौंप दी।
14 सितंबर 2003 को हैदराबाद में कांशीराम को एक गंभीर पक्षाघात हुआ, उन्हें हैदराबाद के अपोलो हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया, और अगले दिन उन्हें एयर एंबुलेंस से नई दिल्ली के बत्रा हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया।
29 अप्रैल 2004 को अस्पताल से छुट्टी मिली, लेकिन अगले ही दिन उन्हें पुनः भर्ती कराना पड़ा, आखिरकार उन्हें 1 जुलाई,2004 को हॉस्पिटल से छुट्टी मिली।
मा. कांशीराम : पार्टी और परिवार के बीच संघर्ष
“हम सामाजिक न्याय नहीं चाहते हैं, हम सामाजिक परिवर्तन चाहते हैं। सामाजिक न्याय सत्ता में मौजूद व्यक्ति पर निर्भर करता है। मान लीजिए, एक समय में, कोई अच्छा नेता सत्ता में आता है और लोग सामाजिक न्याय प्राप्त करते हैं और खुश होते हैं लेकिन जब एक बुरा नेता सत्ता में आता हैतो वह फिर से अन्याय में बदल जाता है। इसलिए, हम संपूर्ण सामाजिक परिवर्तन चाहते हैं।”- मान्यवर कांशीराम
कांशीराम की देखभाल और उनकी सेवा की जिम्मेदारी को लेकर मायावती और कांशीराम के परिवार के बीच विवाद उनकी मृत्यु तक रहा, कांशीराम की बीमारी और मृत्यु एक लंबे समय तक कानूनी विवाद बन गया था।
यह विवाद उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में पहुंचा,
उच्च न्यायालय में न्यायिक रजिस्ट्रार की रिपोर्ट के आधार पर उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने कांशीराम के परिवार की अर्जी को खारिज कर दिया।
कांशीराम के भाई दलबारा सिंह ने उच्चतम न्यायालय में अपील की जिसमें कांशीराम की मां मुख्य याचिकाकर्ता थीं, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित की एक मेडिकल बोर्ड ने 5 दिसंबर 2005 को अपनी अंतिम रिपोर्ट पेश की ।
अंतिम रिपोर्ट के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय अपना निर्णय देता इसके पहले ही कांशीराम की मां का देहांत हो गया, न्यायाधीश ने दलबारा सिंह के वकील से कहा कि चूंकि मुख्य याचिकाकर्ता का देहांत हो चुका है इसलिए वह मुकदमा वापस ले लें।
कानूनी तौर से असफल रहने पर दलबारा सिंह ने राजनीतिक तरीकों का सहारा लिया और कुछ बसपा से अलग हुए पुराने लोगों के साथ मिलकर 26 मार्च 2006 को “मान्यवर कांशीराम बचाओ संघर्ष समिति (भारत )” के गठन की घोषणा की।
18 जुलाई को प्रदर्शित किया गया, फिर 15 अगस्त को साइकिल रैली से कार्यकर्ता दिल्ली पहुंचे ।
15 सितंबर 2006 को औरैया में एक विशाल मान्यवर कांशीराम बचाओ महासम्मेलन आयोजित किया गया।
दलबारा सिंह ने “बहुजन संघर्ष पार्टी (कांशीराम)” का गठन किया, उन्होंने “बहुजन संघर्ष पार्टी क्यों?” के नाम से एक पत्रिका भी जारी की।
हालांकि पार्टी के चुनावी मैदान में उतरने से पहले 9 अक्टूबर 2006 को मान्यवर कांशीराम परिनिर्वाण (मृत्यु) को प्राप्त हो गए।
इसी के साथ दलित राजनीति के महत्वपूर्ण अध्याय के एक महान नायक का अंत हो गया।
कांशीराम की मृत्यु के तुरंत बाद उनके भाई और बहन ने उनके पार्थिव शरीर के पोस्टमार्टम और उनके पार्थिव शरीर परिवार को सौंपने की याचिका दायर की।
अदालत द्वारा याचिका खारिज कर दी गई परंतु अदालत द्वारा यह जरूर सुनिश्चित कराया गया कि कांशीराम के अंतिम संस्कार के समय पुलिस सुरक्षा में उनके रिश्तेदार भी मौजूद रहें।
कांशीराम ने 14 अक्टूबर को बौद्ध धर्म अपनाने की घोषणा की थी, परंतु उससे पहले ही उनका निधन हो गया उनका अंतिम संस्कार बौद्ध रीति रिवाज से किया गया।
मा. कांशीराम का जीवन संघर्ष : कहानी एक कोट की
“जिस समुदाय का राजनीतिक व्यवस्था में प्रतिनिधित्व नहीं है, वह समुदाय मर चुका है। ” – मान्यवर कांशीराम
मान्यवर कांशीराम सादा जीवन जीने में विश्वास करते थे। वे तड़क-भड़क से वे सदा दूर रहे अथक परिश्रम में जीवन जीते हुए उन्होंने कभी भी पहनने और खाने का शौक नहीं पाला।
उन्हे जैसे कपड़े पहनने को मिल गये वैसे कपड़े पहन लिए, जैसा खाने को मिल गया वैसा खा लिया। वे अक्सर पुराने कपड़ों के बाजार से कपड़े खरीद लाते थे,3 जोड़ी से ज्यादा कपड़े उनके पास कभी भी नहीं रहे।
“यह घटना हर बहुजन की आँखेें नम कर देगी। 1971-1972 की बात है उन्हें सर्दी के मौसम में कहीं संगठन कार्य के लिए जाना था। तब वे नौकरी छोड़ चुके थे तथा समाज के संगठन में जुटे हुए थे.
उस समय उनकी कोई भी पहचान नहीं बन पाई थी , ऐसे में पैसे की किल्लत होना लाजिमी था। सर्दी से बचने के लिए उन्होंने एक कोट खरीदने की योजना बनाई। वह पुराने कपड़ों के बाजार में पहुंचे। पुराने कोट पर भी वे अधिक पैसे बर्बाद करने के पक्ष में नहीं थे।
उन्होंने दुकानदार से और सस्ता कोट दिखाने को कहा। दुकानदार ने व्यंग्य में कहा -पास के मुर्दा घाट में वहां का डोम मुर्दों के कपड़े बेचता है, इससे सस्ता तो वहीं मिल सकता है।
साहेब कांशीराम बिना कुछ सोचे मुर्दा घाट में जा पहुंचे, वहां रखे मुर्दों के कोटों में से एक कोट उन्होंने ₹5 में खरीद लिया तथा उसे पहने खुशी-खुशी अपने मिशन पर निकल गए। सादगी की ऐसी मिसाल शायद ही किसी भारतीय राजनीतिज्ञ में मिले। ”
“मैं गांधी को शंकराचार्य और मनु (मनु स्मृति के) की श्रेणी में रखता हूं जो उन्होंने बड़ी चतुराई से 52% ओबीसी को किनारे रखने में कामयाब रहे। ” – मान्यवर कांशीराम
FAQ
कांशीराम का जन्मदिन कब और कौन से दिवस के रूप में मनाया जाता है?
15 मार्च का दिन दलितों के उद्धारक बहुजनों के मसीहा कांशीराम का जन्मदिन है। मान्यवर कांशीराम जयंती, जिसे पूरे भारत में प्रेरणा दिवस के रूप में मनाया जाता है।
कांशीराम का जन्म कहाँ हुआ था ?
मान्यवर कांशीराम साहब का जन्म 15 मार्च 1934 को रोपड़ (रूपनगर) जिले के खवासपुर नामक कस्बे के पिरथपुर बुंगा नामक गांव में हुआ था।
कांशीराम के माता पिता का नाम क्या था?
कांशीराम के पिताजी का नाम हरी सिंह और माता का नाम बिशन कौर था।
कांशीराम की उच्च शिक्षा कहाँ से हुई?
सन् 1956 में उन्होंने बीएससी अर्थात् स्नातक की परीक्षा गवर्नमेंट कॉलेज रोपड़ से पास की।
1956 में स्नातक की परीक्षा पास करने के बाद कांशीराम देहरादून स्टाफ कॉलेज में उच्च शिक्षा के अध्ययन एवं प्रशिक्षण के लिए चले गए।
कांशीराम का परिनिर्वाण किस दिन हुआ?
9 अक्टूबर 2006 को मान्यवर कांशीराम परिनिर्वाण को प्राप्त हो गए।
कांशीराम की प्रतिज्ञायें क्या थीं?
- मैं कभी घर लौट कर नहीं आऊँगा।
- मैं कभी घर नहीं बनाऊँगा। गरीबों, दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का घर ही उनका घर होगा।
- मैं सारे पारिवारिक संबंधों से मुक्त रहूँगा, मैं अपने संबंधियों से कोई संबंध नहीं रखूँगा।
- मैं कभी शादी नहीं करूंगा, क्योंकि शादी उनके एकनिष्ठ मिशन की दिशा के पूर्ण समर्पण में बाधक सिद्ध होगी।
- मैं कभी किसी शादी, जन्मदिन, अंतिम संस्कार जैसे किसी सामाजिक कार्यक्रमों में शामिल नहीं होऊँगा।
- मैं कभी परिवार की जिम्मेदारी नहीं उठाऊँगा, क्योंकि पूरे समाज की जिम्मेदारी अब मेरे ऊपर है।
- मैं कभी कोई दूसरी नौकरी नहीं करूंगा।
अंत में उन्होंने कहा कि मैं बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर के सपनों को पूरा किये बगैर आराम नहीं लूँगा।
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बहुजन नायक कांशीराम जीवनी –
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